Independence : क्रिसमस पर ही मिल जाती आजादी, लेकिन...

 Vellore Revolt : बस 5 मिनट से बच गए थे अंग्रेज वरना वेल्लोर विद्रोह से मिल जाती आजादी!

अंग्रेजों से आजादी (Independence) हासिल करने के लिए स्वतंत्रता सेनानियों ने अनगिनत बलिदान दिए हैं। 15 अगस्त 1947 की तारीख उसी बलिदान का नतीजा है। लेकिन यह तारीख पहले भी आ सकती थी। uplive24.com पर Independence Day से जुड़ा इतिहास का एक किस्सा।

भारत की आजादी (Independence) के लिए दो तरह से लड़ाई चल रही थी। एक रास्ता था अहिंसक, जिसका नेतृत्व महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) कर रहे थे। बापू का मानना था कि अहिंसा में बहुत ताकत होती है और इसके माध्यम से भी अंग्रेजों भारत से भगाया जा सकता है।

दूसरा रास्ता सशस्त्र क्रांति का था। इसकी कमान उन युवाओं के हाथो में थी, जिन्हें लगता था कि आजादी (Independence) अहिंसा से नहीं मिल सकती। अंग्रेजों को उन्हीं की भाषा में जवाब देना होगा।

सशस्त्र क्रांतिकारियों की चर्चा काफी कम होती है। लेकिन, अगर तकदीर ने थोड़ा-सा भी साथ दिया होता, तो शायद भारत को आजाद कराने का सेहरा सशस्त्र क्रांतिकारियों के सिर पर ही बंधता। उन्होंने दो ऐसी कोशिशें कीं, जो सफल होने के बेहद करीब थीं। 

यह पूरा वाकया है पहले विश्व युद्ध के समय का, जो जुलाई 1914 में शुरू हुआ। इसमें महात्मा गांधी समेत कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं ने ब्रिटिश हुकूमत का साथ देने का फैसला किया। उनका मानना था कि इसके बदले अंग्रेज जंग के बाद बहुत-सी सियासी रियायतें दे सकते हैं। लेकिन सभी हिंदुस्तानी इससे सहमत नहीं थे। कइयों को लगता था कि विश्व युद्ध के चलते अंग्रेजी हुकूमत फिलहाल कमजोर है और उसे भारत से खदेड़ने के लिए यह सही समय है।

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आजादी (Independence) के लिए क्रांतिकारियों का नेटवर्क

क्रांतिकारी आंदोलन के दो मुख्य केंद्र थे - पंजाब और बंगाल। देश के अन्य हिस्सों में भी ऐसी छिटपुट कोशिशें हो रही थीं, जिनमें वाराणसी को भी एक बड़ा केंद्र कहा जा सकता है। ये लोग छोटे-छोटे समूहों में रहकर अपनी गतिविधियों को अंजाम देते। लेकिन, रासबिहारी बोस (Rasbihari Bose) और उनके युवा लेफ्टिनेंट सचिंद्र नाथ सान्याल की कोशिशों से इनका बड़ा नेटवर्क बन रहा था।

रासबिहारी न सिर्फ भारत, बल्कि दुनियाभर में फैले भारतीयों से संपर्क बना रहे थे, जो सशस्त्र क्रांति में भरोसा करते थे। पहले विश्व युद्ध की शुरुआत से पहले ही दुनियाभर में भारतीय क्रांतिकारियों का एक व्यापक नेटवर्क मौजूद था। क्रांतिकारी दिसंबर 1912 में वायसराय लॉर्ड हार्डिंग को मारने में लगभग कामयाब भी हो गए थे। वायसराय दिल्ली के चांदनी चौक से गुजर था, तभी उस पर बम से हमला किया गया। वह बुरी तरह से घायल हो गया, लेकिन उसकी जान बच गई।

जब विश्व युद्ध का ऐलान हुआ, तो यह जाहिर हो गया कि अंग्रेजों को भारतीय सैनिकों पर बहुत ज्यादा निर्भर रहना होगा। क्रांतिकारियों को बगावत के लिए यह सबसे बेहतरीन मौका लगा। रासबिहारी बोस और सचिंद्र सान्याल ने योजना बनाई कि अगर क्रांतिकारी और भारतीय रेजिमेंट एक साथ बगावत करें, तो आजादी (Independence) मिल सकती है। 

अपने ने की गद्दारी

रासबिहारी और सान्याल ने अमेरिका से लौटने वाले सिखों और बंगाल के गुप्त क्रांतिकारियों से बात की। पंजाब से लेकर बर्मा (अब म्यांमार) तक फैलीं रेजिमेंट भी विद्रोह का हिस्सा बनने को तैयार थीं। इस विद्रोह को नाम दिया गया- गदर विद्रोह। तय किया गया कि बगावत की शुरुआत पंजाब से होगी और फिर बाकी जगहों पर हमला बोला जाएगा। इसके लिए तारीख तय की गई 21 फरवरी 1915।

लेकिन, दुर्भाग्य से यह विद्रोह एक तरह से शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया। इसकी वजह था किरपाल सिंह। वह अंग्रेजों का मुखबिर था। उसने विद्रोह के ठीक पांच दिन पहले अंग्रेजों को पूरी योजना बता दी। रासबिहारी ने कहा कि अंग्रेजों को अब हमारी योजना पता है, हमें उन्हें संभलने का मौका नहीं देना चाहिए। उन्होंने तय तारीख से दो दिन पहले विद्रोह का फैसला किया। 

लेकिन, ब्रिटिश हुकूमत पूरी तरह अलर्ट थी। उसने सभी शस्त्रागार में भारतीय पहरेदारों की जगह अंग्रेज पहरेदार लगा दिए गए। छापा मारकर कई विद्रोहियों को गिरफ्तार भी कर लिया। क्रांतिकारियों की अचानक धावा बोलने की योजना थी, ताकि अंग्रेजों को संभलने का मौका न मिले। लेकिन, अंग्रेज उनके हमले के लिए पहले से तैयार थे। गोरों की तैयारी के सामने क्रांतिकारी टिक नहीं पाए और आज़ादी का एक बड़ा मौका उनके हाथ से निकल गया। 

एक और धोखा, फिर टली आजादी (Independence)

रासबिहारी की योजना विफल हो चुकी थी। उनके कई भरोसेमंद साथी या तो शहीद हो चुके थे या फिर कैद में थे। उन्होंने सान्याल के साथ मिलकर वाराणसी की संकरी गलियों में शरण ली। हालांकि, पुलिस उनकी तलाश में चारों तरफ दबिश दे रही थी। आखिर में रासबिहारी ने जापान भागने का फैसला किया। सान्याल ने उन्हें कोलकाता से रवाना किया, लेकिन खुद बाकी क्रांतिकारियों को संगठित करने के लिए वहीं रुक गए। 

जब रासबिहारी को पता चला कि जर्मन वॉर मशीन ने उनकी मदद करने का फैसला किया है, तो उनका मनोबल फिर से बढ़ गया। बर्लिन में इंडियन रिवॉल्यूशनरी कमिटी बनी और इसे पूर्ण दूतावास का दर्जा भी मिला। अब बात थी अंग्रेजों से मुक़ाबला करने के लिए हथियारों और गोला-बारूद की। यह सब अमेरिका से मिला।

उस वक्त अमेरिका पहले विश्व युद्ध का हिस्सा नहीं बना था। अमेरिका में मौजूद जर्मन दूतावास ने वहां से 30 हजार राइफल और पिस्तौल के साथ भारी मात्रा में गोला-बारूद हासिल किया और गुप्त तरीके से भारत भेजने का इंतजाम किया। इसके लिए दो जहाज किराये पर लिए गए। तय किया गया कि दोनों जहाज प्रशांत महासागर से होकर एशिया जाएंगे। एक निश्चित तारीख और जगह पर मिलेंगे। वहां से हथियारों को छोटे जहाजों में भरकर भारत पहुंचाया जाएगा।

योजना यह थी कि खतरनाक हथियारों से लैस क्रांतिकारी साल 1915 में क्रिसमस के दिन कोलकाता पर कब्जा कर लेंगे। 

लेकिन, नसीब ने एक बार फिर क्रांतिकारियों का साथ नहीं दिया। दोनों जहाजों को जिस दिन और जिस जगह मिलना था, वे मिल नहीं पाए। इससे भी बुरा यह हुआ कि अंग्रेजों ने विंसेंट क्राफ्ट नाम के एक जर्मन एजेंट को सिंगापुर में गिरफ्तार कर लिया। उन्होंने विंसेंट को लालच दिया कि अगर वह उन्हें क्रांतिकारियों का प्लान बता दे, तो वे उसे इनाम में एक बड़ी रकम देंगे। साथ ही, उसे एक नई पहचान के साथ अमेरिका में बसा दिया जाएगा। विंसेंट लालच में आ गया और उसने अंग्रेजों के सामने सारा राज उगल दिया। 

अंग्रेजों ने थाईलैंड और बंगाल की खाड़ी के रास्ते भारत में हथियार ले जा रही नौकाओं को पकड़ लिया। ब्रिटिश पुलिस ने सिलसिलेवार ढंग से कई जगहों पर दबिश दी। कलकत्ता और बर्मा में करीब 300 क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया गया। क्रिसमस डे की साजिश बुरी तरह कुचल दी गई और भारत की आजादी (Independence) तीन दशकों के लिए टल गई।

बेशक गदर विद्रोह और क्रिसमस डे वाला प्लान नाकाम रहा। लेकिन, ये दोनों ब्रिटिश हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए सशस्त्र क्रांतिकारियों की बड़े पैमाने पर बनाई गई योजनाएं थीं। अगर नसीब का थोड़ा साथ मिल जाता, तो ये योजनाएं सफल भी हो जातीं। फिर शायद भारत की आज़ादी का इतिहास दूसरे तरीके से लिखा गया होता।

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